Monday, April 5, 2010

क़यामत

ज़मीन फट जाए,
आगबबूले उछल निकले,
पहाड़ों को डुबोई समन्दर,
इसे मैं क़यामत नहीं समझता|
तुम न र्हो मेरी नज़्म सराहने,
सोच के लरज़ता हूँ|

- मुश्ताक़

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