Monday, April 5, 2010

ख़ौफ़ के बादल

ख़ौफ़ के बादल उभर आते हैं,
बिना ख़ौफ़...
और मैं गुमसुम देखता रहता हूँ|
यह कभी भाँप की चादर से
बारीक़ होते हैं तो कभी
समुन्दर से गहरे|
कभी तसव्वुर से भी तेज़तर
और बर्क़ से ज़्यादा तबहियफ़ता,
या फिर बढ़ती उम्र से
खामोश पर पुर असर|
यह बरहा लौटकर,
बस जातीं हैं मौसम की
ज़िद्दी रंगीनियों की तरह|

मुश्ताक़

No comments:

Post a Comment