Monday, August 9, 2010

माँ

किताबों से ऊचता मेरा मन, और नीन्द में है माँ,
कभी कभी नीन्द में ही मांझ डले जिसने बरतन,
बीच में ही उठकर साफ़ किये मेरे दान्त,
कभी कंघी की, कधी बसता किया तैयार,
कभी कभी किताबों में भी दिखी है वह,
कभी किताबों से बड़ी हो गई अक्षरों की तरह जो,
सावधान करती रही मुझे हर रोज़,
जैसे सुबह उसे ही बैठना है इमतेहाँ में,
उसे ही हल करना है सवाल तमाम,
और पास होना है अव्वल दर्जे से,
मेरे फ़ेल होने का नतीजा मुझसे बहतर जानती है माँ,
और मैं 'तन्हा' फ़ेल नहीं हो सकती
यह बात मुझे जयदा मानती है माँ

- आशिक़ा 'तन्हा'

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