नज़रें मिलते ही एक दीवार सी खड़ी हो जाती है,
ज़हन की ख़्वाहिश एक मीनार सी बड़ी हो जाती है,
कली से गुल, गुल से फल सिरशता है पर,
तसव्वुर जगते ही पूरे गुलिस्तान की ख़ालिश एक कली हो जाती है,
ज़माना ख़ुद चले सर के बल तब,
सारी नेकी भी एक बड़ी हो जाती है,
अफ़्साने मेरे इर्द गिर्द फूटते रहते हैं मुसलसल तब,
मेरी दास्तान भी एक कड़ी हो जाती है,
मुख़तलिफ़ हवाएँ बवन्डर उठ करें तब,
'मुश्ताक़', ज़िन्दगी के शजर की घटा सिर्फ एक चड़ी हो जाती है|
- मुश्ताक़
Saturday, October 17, 2009
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