Thursday, October 22, 2009

मेरे ख़्वाबिदा ज़हन पे

मेरे ख़्वाबिदा ज़हन पे बर्क़ गिराओ, यह हक़ है तुम्हें;
मेरे फूलों से नाज़ुक सपनों पे बर्फ़ जमाओ, यह हक़ है तुम्हें|

सन्नाटे सफ़ेद चादर से फैलकर जज़बातों का गला घोंटें
तब तसव्वुर-ओ-हक़ीक़त में फ़ासले मिट जाते हैं,
दर्द एक हद के पार बढ़ चल तो आदतुन मजबूरी बन जाता है|

मेरे ज़हन में ख़्वाबिदा अरमानों को जगाओ, यह हक़ है तुम्हें;
मेरे ख़्वाबों में पयवस्त ख़्वाहिशें बहलाओ, यह हक़ है तुम्हें|

- मुश्ताक़

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