मेरे सपनों पे तुमने राज किया है,
कभी रूह को अफ़ज़ान तो कभी दिल को नाराज़ किया है|
तुम हो क्या आख़िर,
कोई भटकी शहजादी या आसमान से गिरी अप्सरा?
बड़ी मुशक़्क़त से देखा है
इस तिलस्मी शख़्सियत को ज़र्रा बर ज़र्रा,
एक हल्क़ी सी बर्क़ गिरा दो अब,
अपने रूह की झलक दिखा दो अब|
मेरे ज़हन में जंगल के जंगल शोला-नशीन हैं,
और आपकी हस्ती में पयवस्त
फ़रिश्ता परदा-नशीन है|
बस इन शरबती आँखों से एक-आध
क़त्रा सरक आए आब-ए-ज़मज़मा का,
यह जंग-ए-जलाली सा तकाज़ा सुलझ जाए हर दम का|
ज़माना क्यों न हो अंजुमन ख़ौफ़नाक दरिन्दों की,
है जो परवाज़ तुम्हारी रुहानियत में शौक़ परिन्दों की|
- मुश्ताक़
Monday, October 12, 2009
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