Tuesday, September 13, 2011

उसने दिन रात

उसने दिन रात मुझको सताया इतना
कि नफ़रत भी हो गयी और मोहब्बत भी हो गयी|

उसने इस नज़ाकत से मेरे होंठों को चूमा,
कि रोज़ा भी न टूटा और इफ़तारी भी हो गयी|

उसने इस तरह से मुझसे मोहब्बत की
के गुनाह भी न हुआ और इबादत भी हो गयी|

मतपूछो उसके मोहब्बत करने का अन्दाज़ कैसा था,
उसने इस शिद्दत से सीने से लगाया
कि मौत भी न हुई और जन्नत भी मिल गयी!

- अनजान

बेढड़क खेलता था मैं

बेढड़क खेलता था मैं यूँही जब तक हारा न था,
हौंसला बढ़ाता गया मेरा यूँही, और कोई चारा न था,
वह ही दुशमन खड़ा हुआ जिसे कभी मारा न था|

मीजाज़े गर्म क्या नापते हम, अब शीशी में पारा न था,
चाक गिरेबान ज़िन्दगी रही, कभी नसीब सवारा न था,
हावी रहा संग दिल ज़माना, एक लम्हा चैन गवारा न था|

ख़ुशहाली बनी रही आगे, उबलता ज़मीर थारा न था,
निख़ार आया भी जब ज़ीस्त पे उसमें, जोशे बहाराँ न था,
हिसाब क्या ख़ाक़ करते मुश्ताक़, भटकी नाव का किनारा न था|

- मुश्ताक़

दाग़ मेरे दामन के

दाग़ मेरे दामन के धुले न धुले,
नेलकियाँ मेरी तराज़ू में तुले न तुले,
आज ही गुनाहों से कर लूँ तौबा,
ख़ुदा जाने कल मेरी आँख खुले न खुले

- अनजान