Monday, October 12, 2009

ख़ामोशीने तुम्हें...

ख़ामोशीने तुम्हें
ग़र्क़ क्या किया,
बातों बातों में या
तुम्ही ने बेसाख़्ता
घौटा लगाया एक
सुनसान समन्दर
में?
क्यों मेरे
ज़हन में
लब्ज़ ओ जज़बात
शिद्दतसे लर्ज़े
थर्राएत तड़पे फिर
धड़कर आख़िरान
उबलकर खौलने
लगे?
यह दिल एक
पुश्तैनी देग़ है
जिस आनजान
शैतानोंका कबीला
दूरसे मुसलसल हिलाता
रहता है,
अनगिनत ज़ायकेदार
झोंके आते रहते
हैं, सर्द हवाएँ
कानाफूसी करतीं
रहतीं हैं तो कभी
रूहकी बेअवाज़
चितकार या जले दिलकी
भपकी बेधड़क उठती है|
यही वह ढोल
तानसे पिटवाती
ज़िन्दगी है, या फिर
मेरे ख़्वाबों की
दरारें एकसाथ
मिलकर ज़िन्दगीका
नक़ाब औढ़े, गले
लग रहे हैं?

- मुश्ताक़

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