Wednesday, October 30, 2013

Morning Raga

गुलाबी ठंड की दस्तक

सुबह सुबह रोम रोम में हरारत सी लगी,
कुछ सिहरन सी, कुछ ठिठुरन भी
खिड़की पर गुलाबी ठंड की दस्तक सुन
पलकें मूँदे ही उठ बैठी मैं, करती कुनकुन
चढ़ा था बुख़ार माथे पर गुमान की तरह
गले में ख़राश थी या ख़लिश थी कोई
नामालूम अदा थी सर्दी की या पहेली कोई
बहरहाल उठना था टूटते बदन को समेटे
मन हुआ कोई सोने को कहदे शाॅल लपेटे
थपकी देकर मन को समझाया मनाया
फ़िर हौले से इक बोसा ख़ुद को ही देकर
चल पड़ी करने नये दिन का इस्तक़बाल

- रचना २९ अक्टूबर २०१३

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