विष से वन्चित रहकर जीवन व्यर्थ है,
स्नेह की प्रीतीची से स्व को कर दीप्तिमान लेना,
विषामृत प्रश में महारुद्र समर्थ है|
- आशिक़ा 'तन्हा'
मेरा अंतर्मुखी रुदन विस्तृत होकर विलोपन बन जाए
शरीर और आत्मा बीच दुरी तक क्षुल्लक बन जाए...
विचारोंके वमल में छिपे सुक्ष्म प्रतिबिम्ब भी जब
आत्माके क्रीडांगन में एक नक्कार स्वप्ना बन जाए.
- " मुश्ताक "
शरीर और आत्मा बीच दुरी तक क्षुल्लक बन जाए...
विचारोंके वमल में छिपे सुक्ष्म प्रतिबिम्ब भी जब
आत्माके क्रीडांगन में एक नक्कार स्वप्ना बन जाए.
- " मुश्ताक "
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