न समझा है न समझेगा यह ज़ालिम-ओ-क़ातिल ज़माना,
सर पटकने के माहिर हैं हम, और पटकने से क्या पाना,
ग़म ओ खुशी चले आते हैं मुसलसल उम्रभर,
जज़्बात भरते हैं आप-ओ-आप, लगे न कोई बहाना,
दिल को जबसे बना रखा है है कारवाँसराई हमने,
बस यूँ ही चलता रहा लोगों का आना जाना|
- मुश्ताक़
Thursday, October 28, 2010
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