ख़ुद को पढ़ता हूँ, छोड़ देता हूँ,
एक वरक रोज़ मोड़ देता हूँ...
इस क़दर ज़ख़्म है निगाहों में,
रोज़ एक आईना तोड़ देता हूँ...
कांपते होंठ, भीगी पलकें,
बात अधूरी ही छोड़ देता हूँ...
रेतके घर बना बना के फ़राज़,
जाने क्यों ख़ुद ही तोड़ देता हूँ
- अहमद फ़राज़
Monday, September 13, 2010
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