बेढड़क खेलता था मैं यूँही जब तक हारा न था,
हौंसला बढ़ाता गया मेरा यूँही, और कोई चारा न था,
वह ही दुशमन खड़ा हुआ जिसे कभी मारा न था|
मीजाज़े गर्म क्या नापते हम, अब शीशी में पारा न था,
चाक गिरेबान ज़िन्दगी रही, कभी नसीब सवारा न था,
हावी रहा संग दिल ज़माना, एक लम्हा चैन गवारा न था|
ख़ुशहाली बनी रही आगे, उबलता ज़मीर थारा न था,
निख़ार आया भी जब ज़ीस्त पे उसमें, जोशे बहाराँ न था,
हिसाब क्या ख़ाक़ करते मुश्ताक़, भटकी नाव का किनारा न था|
- मुश्ताक़
Tuesday, September 13, 2011
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